शोध आलेख : भारतीय सिनेमा में दलित समुदाय का चित्रण और बदलते पहलू / साहिल

भारतीय सिनेमा में दलित समुदाय का चित्रण और बदलते पहलू
- साहिल

शोध सार : भारतीय सिनेमा में दलितों का चित्रण और उनकी भूमिका विविध और जटिल रही है। प्रारंभिक फिल्मों में दलितों को अक्सर स्टीरियोटाइप्स के रूप में दिखाया गया, जिसमें उनके संघर्षों और सामाजिक स्थितियों को गहराई से नहीं उकेरा गया। परंतु, समय के साथ सिनेमा में बदलाव आया है। 1960 और 70 के दशक में कुछ फिल्में, जैसे 'अछूत कन्या' और 'सुजाता', ने दलित मुद्दों को संवेदनशीलता के साथ पेश किया। 1990 के दशक के बाद, दलित जीवन पर आधारित फिल्मों में वास्तविकता का अधिक प्रतिबिंब देखने को मिला, जैसे 'मस्सान', 'आर्टिकल 15', आदि। इन फिल्मों ने जाति-आधारित भेदभाव, उत्पीड़न और दलितों के संघर्षों को सशक्त तरीके से चित्रित किया। वर्तमान में, दलित निर्देशकों और लेखकों की उभरती प्रतिभाएं दलितों की आवाज को मुख्यधारा में ला रही हैं। भारतीय सिनेमा में दलितों का चित्रण अधिक संवेदनशील और वास्तविक होता जा रहा है, जो समाज में सकारात्मक बदलाव लाने में सहायक है। यह शोध पत्र इन परिवर्तनों का पता लगाने का एक प्रयास है।

बीज शब्द : भारतीय सिनेमा, दलित चित्रण, दलित कलाकार, दलित संघर्ष, सिनेमा में दलितों का योगदान

मूल आलेख : भारतीय सिनेमा ने २०वीं सदी की शुरुआत से ही विश्व के सिनेमा जगत पर गहरा प्रभाव छोड़ा है। दादा साहब फाल्के को भारतीय सिनेमा के जनक के रूप में जाना जाता हैं। सत्यजीत रे, ऋतिक घातक, मृणाल सेन, बुद्धदेव दासगुप्ता, जी अरविन्द, अपर्णा सेन, जी अरविंदन, अपर्णा सेन, शाजी एन करुण, और गिरीश कासरावल्ली जैसे निर्देशकों ने समानांतर सिनेमा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है और वैश्विक प्रशंसा जीती है। शेखर कपूर, मीरा नायर और दीपा मेहता सरीखे फिल्म निर्माताओं ने विदेशों में भी सफलता पाई है। 100% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रावधान से 20वीं सेंचुरी फ़ाकस, वाल्ट डिज्नी पिक्चर, एंड वर्नर ब्रोदर आदि विदेशी उद्यमों के लिए भारतीय फिल्म बाजार को आकर्षक बना दिया है। भारतीय सिनेमा समाज के विभिन्न पहलुओं का प्रतिबिंब है, और इसमें दलितों का चित्रण एक महत्वपूर्ण और संवेदनशील मुद्दा रहा है। दलितों के संघर्ष, उनकी सामाजिक स्थिति और उनके योगदान को फिल्मों में किस प्रकार दिखाया गया है, यह समझना आवश्यक है।

भारतीय सिनेमा का विषय -

भारतीय सिनेमा की शुरुआत के साथ, फिल्म निर्माताओं ने दैनिक जीवन की स्थितियों, मनोरंजन और कॉमेडी के बारे में कहानियों को अधिक चित्रित किया ताकि लोग उनसे जुड़ सकें। पुरानी पीढ़ी के लोग नैतिकता, मूल्यों, त्याग, सच्चे रिश्तों को अधिक महत्व देते थे और यही बात बड़े कैनवास पर भी झलकती थी। कुछ सालों बाद जब भारतीय सिनेमा ने लोगों के दिलों में अपनी जगह बना ली तो फिल्म निर्माताओं ने जोखिम लेना शुरू कर दिया। उन्होंने ऐसी फ़िल्मों का निर्देशन करना शुरू किया जिनमें न केवल मनोरंजन होता था बल्कि जनता के बीच सामाजिक जागरूकता पैदा करने पर भी ध्यान केंद्रित किया। यौन उत्पीड़न, मॉब लिंचिंग, अंतरजातीय विवाह, बेवफाई इत्यादि जैसे विषयों की खोज की गई और इसने बोल्ड, प्रयोगात्मक सिनेमा के युग की शुरुआत की। इन विषयों के अलावा, महिला सशक्तिकरण पर अन्य पथप्रदर्शक फिल्में भी थीं जैसे मदर इंडिया, दामिनी आदि।

इसके साथ ही भारतीय सिनेमा में दलित चरित्रों और कलाकारों का प्रतिनिधित्व धीरे-धीरे बढ़ता गया है। 1970 के दशक से यथार्थवादी सिनेमा ने दलित समाज की समस्याओं को अपना विषय बनाया। कुछ प्रमुख फिल्में जिनमें दलितों की पीड़ा का मार्मिक चित्रण किया गया हैं - प्यासा (1959), कागज के फूल (1959), नीचा नगर (1946), बूट पॉलिश (1954), आवारा (1956), बैंडिट क्वीन (1994) आदि। 1960 और 70 के दशक में, कुछ फिल्मों ने दलित मुद्दों को संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत करना शुरू किया। बिमल रॉय की फिल्म 'सुजाता' (1959) एक ऐसी ही फिल्म है, जिसमें दलित नायिका की कहानी को संवेदनशीलता से दिखाया गया। इसके बाद, 1990 के दशक में सिनेमा में परिवर्तन की एक नई लहर आई, जिसमें दलित मुद्दों को अधिक वास्तविकता के साथ दिखाया गया। भारतीय सिनेमा में दलितों का चित्रण मुख्य रूप से निम्न और कमजोर के रूप में किया गया है। इसका प्रमुख कारण यह है कि फिल्म उद्योग में निर्माता, लेखक, निर्देशक और कलाकार अधिकतर उच्च जाति के लोग थे, जो अपनी उच्च जाति की संवेदना से ही दलित पात्रों का चित्रण करते थे। इसके अलावा, दलित नेतृत्व और चेतना का कमजोर होना भी एक कारण है। हालांकि, कुछ प्रगतिशील फिल्मकारों ने दलित पात्रों को आश्रित, कमजोर और निम्न दर्जे का ही दिखाया है। भारतीय सिनेमा के प्रारंभिक दौर में, दलित पात्रों को अक्सर स्टीरियोटाइपिक रूप में दिखाया गया। वे या तो हास्य का स्रोत होते थे या केवल सहायक भूमिकाओं में नजर आते थे।

अछूत समस्याओं पर इनके पहले भी फिल्में बनती रही हैं। आज़ादी से पहले महात्मा गांधी की प्रार्थनाओं, लेखों और भाषणों से 'अछूत' और ‘हरिजन’ शब्द प्रचलन में आए, उनके प्रभाव में फिल्मों की कहानियों में सामाजिक भेदभाव के इस पक्ष को फिल्मों का विषय बनाया गया। न्यू थिएटर्स की फिल्म नितिन बोस निर्देशित ‘चंडीदास’ में उच्च जाति के कवि चंडीदास (के एल सहगल) और उनकी निम्न जाति की प्रेमिका रानी (उमा शशि) के चरित्रों से समाज के पूर्वाग्रहों को दर्शाया गया था। इसे मशहूर नाटककार आगा हश्र कश्मीरी ने लिखा था। ‘चंडीदास’ के दो सालों के बाद मुंबई के बॉम्बे टॉकीज ने जर्मन निर्देशक फ्रान्ज़ ओस्टन के निर्देशन में बनी ‘अछूत कन्या’ का निर्माण किया, यह क्लासिक फिल्म गांधी जी के प्रभाव और प्रेरणा से चल रहे सुधारवादी आंदोलनों के असर में बनाई गई थी। इस फिल्म में भी नायक प्रताप ब्राह्मण है और नायिका कस्तूरी अछूत है, दोनों बचपन के दोस्त हैं, लेकिन पारिवारिक असहमति और दबाव में प्रेम में होने के बाद भी दोनों की शादी नहीं हो पाती।

कुछ ओर फिल्मे आयी जहाँ दलित पात्रो को जगह तो मिली पर वो उन तकलीफों को, जिनसे ये समाज गुजर रहा था, पूरी तरह लोगों के सामने न रख पायी। मुख्य धारा की कई फिल्मी ने जिनमे इस मुद्दे को गंभीरता से दिखाने का प्रयास किया हे उनमें कुछ प्रमुख फिल्मे हैं – अछूत कन्या, सुजाता, गुलामी, अर्जुन पडित, अंकुर, निशांत, पार, इत्यादि। एक और फिल्म “गुठली लड्डू'' दो करीबी दोस्तों की कहानी है जो एक दलित परिवार (भंगी जाति) से आते हैं। लेकिन बाधा है उनकी जाति। एक हेडमास्टर उसके प्रति सहानुभूति रखता है लेकिन जातिगत भेदभाव के खिलाफ शक्तिहीन है। पंजाबी फिल्म “अन्हे घोड़े दा दान” (अंधे घोड़े का दान), यह 1976 में गुरदयाल सिंह के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित है। फिल्म की शुरुआत स्थानीय जमींदारों द्वारा धर्मा के घर को ध्वस्त करने से होती है, जिन्होंने एक फैक्ट्री स्थापित करने के लिए धर्मा के साथ-साथ अपनी जमीन का टुकड़ा भी बेच दिया है। जब धर्मा (मजहबी सिख) और उनके भूमिहीन मजहबी सिख समुदाय के सदस्य हस्तक्षेप के लिए सरपंच के पास जाते हैं, तो उन्हें अदालत में जाने के लिए कहा जाता है। सरपंच, जो स्पष्ट रूप से जमींदार जाटों का प्रतिनिधि है, समूह से बचने के लिए बंदूकों का उपयोग करता है। जल्द ही, धर्मा को गिरफ्तार कर लिया जाता है और उसका समुदाय डर जाता है। यह फिल्म दिखाती है कि कैसे शक्तिशाली जाट ग्रामीण क्षेत्र में निचली जाति के लोगों को कुचलते हैं या उनका शोषण करते हैं।

इन सब प्रयास के बावजूद भी दलित पात्र को मुख्य भूमिका में रखकर शायद ही किसी ने फिल्म बनाने का प्रयास किया हो। शायद इसकी एक वजह ये भी हो सकती है कि हमने कुछ शब्दों के चलन जो दलित त्रासदी को सार्थक रूप से व्यक्त करते थे उसे सीन से ही मिटा दिया। इन शब्दों का प्रयोग भी फिल्मो में सेंसर बोर्ड की कैची का शिकार हो गया। इसके साथ ही उन भायनाओ का भी अन्त हो गया जो इनसे जुड़ी हुइ थी। शायद यहा पर हम अमेरिका के अनुभव से सीख ले सकते है। अमेरिकी समाज में "नीगर" शब्द का प्रयोग उसी प्रकार से किया गया है। दलित शब्‍द का शाब्दिक अर्थ है ‘दलन किया हुआ’। इसके तहत वह हर व्‍यक्ति जिसका शोषण-उत्‍पीडन हुआ है इस श्रेणी में आता है। रामचन्द्र वर्मा ने अपने शब्‍दकोश में दलित का अर्थ लिखा है, मसला हुआ, मर्दित, दबाया, रौंदा या कुचला हुआ, विनष्‍ट किया हुआ।


दलित वर्ग के कुछ कलाकारों ने भी भारतीय सिनेमा में अपनी पहचान बनाई, जैसे हास्य अभिनेता जॉनी लीवर, जो आंध्र प्रदेश के दलित (माला) ईसाई परिवार से संबंध रखते हैं। मलयालम सिनेमा के जनक जे.सी. डेनियल भी पिछड़ी जाति (नाडर) से आते थे। हाल ही में फिल्म 'पीपली लाईव' के हीरो ओंकारदास माणिकपुरी छत्तीसगढ़ी सिनेमा के सफलतम दलित कलाकार हैं। जिन्होंने अपनी प्रतिभा से दलित समुदाय को प्रेरणा दी है। फिल्म 'संजय दत्त' में दलित पहचान को मुख्य भूमिका में दिखाकर, दलित समुदाय के लिए एक महत्वपूर्ण पहचान बनाई गई। यह शायद पहला अवसर था जहां दलित पात्र को मुख्य भूमिका दी गई थी।

भारतीय सिनेमा में दलित महिलाएँ -

भारतीय सिनेमा में दलित महिलाओं का चित्रण एक विशेष महत्व रखता है, क्योंकि यह समाज के सबसे हाशिए पर स्थित वर्ग की वास्तविकता को उजागर करने का माध्यम है। दलित महिलाएं दोहरी भेदभाव का सामना करती हैं - एक तो जाति के आधार पर और दूसरा लिंग के आधार पर। यह चित्रण समय के साथ बदलता रहा है, लेकिन इसके प्रभाव और महत्व को समझना आवश्यक है। भारतीय सिनेमा में दलित महिलाओं का चरित्र चित्रण और उनका योगदान अभी भी सीमित है। हालांकि कुछ फिल्मों ने इस दिशा में प्रयास किए हैं। फिल्म "रंजीता" (1993) में दलित महिला रंजीता का चरित्र दिखाया गया, जिसने अपने जीवन की बलि देकर दूसरों के लिए संघर्ष किया। "गुलाल" (2006) में दलित महिलाओं के शोषण और पुरुषसत्ता के प्रभुत्व को दर्शाया है, “मुलाकर्म” में भारत की उच्च जातियों की मानसिकता को भी दर्शाती है, खासकर दक्षिण भारत में। यह फिल्म उन अनेक विषयों की खोज करती है जिन्होंने सदियों से हमारे समाज को परेशान किया है। निचली जाति की महिलाओं और पुरुषों को ऊंची जातियों के सामने सम्मान के संकेत के रूप में अपने शरीर के ऊपरी हिस्से को ढकने की अनुमति नहीं थी। यह फिल्म मुख्य रूप से दलित महिलाओं पर लगाए जाने वाले ब्रेस्ट टैक्स पर केंद्रित है, जिन्हें अपने स्तन ढकने की अनुमति नहीं थी। हिंदी फिल्मों में अक्सर नायक का निर्धारण जाति करती है और दलित, आदिवासी या पिछड़ी महिलाएं नायिका नहीं बनतीं। कुल मिलाकर, भारतीय सिनेमा में दलित महिलाओं का चरित्र चित्रण अभी भी सीमित है और उनके वास्तविक जीवन के संघर्षों को पर्दे पर पर्याप्त रूप से नहीं दिखाया जाता।

बिमल रॉय की फिल्म 'सुजाता' (1959) एक महत्वपूर्ण फिल्म है जिसमें दलित महिला नायिका की कहानी को संवेदनशीलता और सम्मान के साथ प्रस्तुत किया गया। फिल्म में सुजाता के संघर्षों और सामाजिक भेदभाव का चित्रण किया गया है, और उसके आत्मसम्मान और मानवीयता को प्रमुखता दी गई है। शेखर कपूर की 'बैंडिट क्वीन' (1994) एक और महत्वपूर्ण फिल्म है जो दलित महिला फूला देवी (फूलन देवी) की वास्तविक जीवन कहानी पर आधारित है। फिल्म ने दलित महिलाओं के खिलाफ हिंसा और उत्पीड़न को बारीकी से दिखाया और यह भी बताया कि कैसे एक महिला ने समाज के खिलाफ विद्रोह किया। लीना यादव की फिल्म 'पार्च्ड' (2015) ग्रामीण भारत की महिलाओं की समस्याओं को उजागर करती है, जिनमें दलित महिलाएं भी शामिल हैं। फिल्म ने महिलाओं के यौन शोषण, घरेलू हिंसा और सामाजिक बंधनों को संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया है। इन सभी फिल्मों में दलित चरित्र महिलाएं हैं और उन्हें दीन-हीन ढंग से ही चित्रित किया गया है। अपनी सामाजिक स्थिति और दलित पहचान के कारण उन्हें अधिक तकलीफ झेलनी पड़ती है। उन्हें अपमान और लांछन से भी गुजरना पड़ता है और अंत में प्रेम के लिए त्याग व बलिदान करना पड़ता है।

फिल्मकारों की उच्च जाति की संवेदना दलित पात्रों के चित्रण पर प्रभाव -

फिल्म उद्योग में निर्माता, लेखक, निर्देशक और कलाकार अधिकतर उच्च जाति के लोग हैं, जो अपनी उच्च जाति की संवेदना से ही दलित पात्रों का चित्रण करते हैं। दलित पात्रों को अधिकतर आश्रित, कमजोर और निम्न दर्जे का ही दिखाया जाता है, उन्हें नायकों के समान दर्जा और महत्व नहीं दिया जाता। उच्च जाति के लेखक और निर्देशक दलित महिला चरित्रों के निरूपण में मूल रूप से सदियों से प्रचलित धारणाओं से आगे नहीं बढ़ पाते। पैरेलल सिनेमा के दौर में आकर ही दलित चरित्रों के चित्रण में गुणात्मक फर्क आया, जब राजनीतिक रूप से वामपंथी रुझान के कलाकारों ने दलित चरित्रों को अपनी फिल्मों में विशेष स्थान दिया।

पैरेलल सिनेमा और दलित चित्रण -

पैरेलल सिनेमा के दौर में आकर ही दलित चरित्रों के चित्रण में गुणात्मक फर्क आया, जब राजनीतिक रूप से वामपंथी रुझान के कलाकारों ने दलित चरित्रों को अपनी फिल्मों में विशेष स्थान दिया। नई भाव संवेदना और सामाजिक यथार्थ की समझ के साथ आए फिल्मकार दलित चरित्रों की दारूण स्थिति और सामाजिक पहचान को पर्दे पर रूपायित करते हैं, जैसे 'अंकुर', 'निशांत', 'मंथन', 'आक्रोश' और 'दामुल' जैसी फिल्में। इन फिल्मों में श्याम बेनेगल, गोविन्द निहलानी और प्रकाश झा जैसे फिल्मकारों ने दलित समाज के शोषण, उत्पीड़न, विरोध और विजय की कहानियों को प्रमुखता दी। हिंदी फिल्मों में नीरज घेवन की 'मसान', अमित मासुरकर की 'न्यूटन', बिकास रंजन मिश्रा की 'चौरंगा' जैसी फिल्मों ने दलित पात्रों को नया आयाम प्रदान किया। इस प्रकार, पैरेलल सिनेमा ने दलित पात्रों के चित्रण में गहराई लाने और उन्हें मुख्यधारा में लाने का महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

लेकिन सामान्य जनता और फिल्म इंडस्ट्री की मानसिकता में लगातार बदलाव आ रहा है उस वजह से भारतीय सिनेमा में दलित पहचान धीरे-धीरे मजबूत होती जा रही है, जो एक जातिग्रस्त समाज के लिए बहुत ज़रूरी है। वर्तमान में, कई फिल्में दलित मुद्दों को सशक्त और वास्तविक तरीके से प्रस्तुत कर रही हैं। उदाहरण के लिए, 'मसान' (2015) और 'आर्टिकल 15' (2019) ने जाति-आधारित भेदभाव और उत्पीड़न को प्रामाणिक रूप से दिखाया है। इन फिल्मों ने दलित पात्रों को संघर्षशील और परिवर्तनकारी नायक के रूप में पेश किया है।

निष्कर्ष : भारतीय सिनेमा में दलितों का चित्रण और उनका योगदान एक जटिल और महत्वपूर्ण विषय है। प्रारंभिक दौर में जहां दलित पात्रों को स्टीरियोटाइपिक रूप में दिखाया गया, वहीं समय के साथ इसमें बदलाव आया है। समकालीन सिनेमा में दलित मुद्दों को अधिक वास्तविकता और संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है। दलित कलाकारों और निर्देशकों के योगदान ने इस बदलाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हालांकि, उच्च जाति के निर्देशकों और लेखकों द्वारा दलित पात्रों का नकारात्मक चित्रण अभी भी एक चिंता का विषय है। यह आवश्यक है कि भारतीय सिनेमा में दलितों को उनके वास्तविक संघर्षों, आकांक्षाओं और उपलब्धियों के साथ सम्मानजनक तरीके से प्रस्तुत किया जाए। इस प्रकार, भारतीय सिनेमा में दलितों का चित्रण और योगदान एक महत्वपूर्ण और निरंतर विकासशील विषय है, जो समाज में सकारात्मक बदलाव लाने में सहायक हो सकता है। दुर्भाग्य से, भारतीय सिनेमा में उच्च जाति के निर्देशकों और लेखकों द्वारा दलित पात्रों को निम्न और भद्दे रूप में प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति भी रही है। ऐसे चित्रण ने समाज में पहले से मौजूद पूर्वाग्रहों को और मजबूत किया है। इन फिल्मों में दलितों को अक्सर अशिक्षित, गरीब और असभ्य के रूप में दिखाया गया, जिससे उनके बारे में नकारात्मक धारणाएं बनी रहीं। दूसरी ओर भारतीय सिनेमा में दलित कलाकारों का योगदान भी महत्वपूर्ण रहा है। प्रकाश झा जैसे निर्देशक और नाना पाटेकर जैसे अभिनेता ने दलित मुद्दों पर आधारित फिल्मों में अपनी प्रतिभा दिखाई है। इसके अलावा, दलित लेखकों और पटकथा लेखकों की उभरती प्रतिभाएं भी अब मुख्यधारा में आ रही हैं, जो दलित समाज की कहानियों को वास्तविकता के साथ पेश कर रही हैं।

भारतीय सिनेमा में दलित महिला कलाकारों का योगदान भी महत्वपूर्ण है। स्मिता पाटिल, शबाना आज़मी, और अन्य कई कलाकारों ने दलित महिलाओं के किरदारों को जीवंत और संवेदनशीलता के साथ निभाया है। ये कलाकार समाज में बदलाव लाने और दलित महिलाओं की आवाज को मजबूत करने में सहायक रहे हैं। भारतीय सिनेमा में दलित महिलाओं का सशक्त चित्रण समाज में सकारात्मक बदलाव लाने और सामाजिक न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि सिनेमा में उनकी कहानियों को सम्मान और संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया जाए, ताकि उनके संघर्ष और आकांक्षाओं को सही मायनों में समझा और सराहा जा सके।

संदर्भ : 
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7 अजय ब्रह्मात्मज, हिंदी फिल्मों में दलित चरित्र, फिल्म लॉन्ड्री, न्यूज़लॉन्ड्री डॉट कॉम, 16 अप्रैल 2021. 
8 अजय ब्रह्मात्मज, हिंदी फिल्मों में दलित चरित्र, फिल्म लॉन्ड्री, न्यूज़लॉन्ड्री डॉट कॉम, 16 अप्रैल 2021. 
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10 ए रीडर्स वर्ड्स, लिटरेचर, पॉलिटिक्स, पैराडाइज, लेबरिंथस https://shorturl.at/RgLdL 
11 गोविन्द जी पांडेय, हिंदी फिल्मों में दलित पात्रों के समावेशन और उनकी भूमिका का अध्ययन, रीसर्च गेट, जून 2014. 
12 रामचन्द्र वर्मा (सम्पादक), संक्षिप्‍त शब्‍द सागर, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, (नवम संस्‍करण), 1987, पृष्‍ठ 468. 
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14 गोविन्द जी पांडेय, हिंदी फिल्मों में दलित पात्रों के समावेशन और उनकी भूमिका का अध्ययन, रीसर्च गेट, जून 2014. 
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16 डॉ. राकेश कबीर, भारतीय समाज में फैला जातिवाद यहाँ के सिनेमा के मौलिक चरित्रों में ठूँस-ठूँस कर दिखाया जाता है, गांव के लोग (https://rb.gy/asy276), 3 जून 2024. 
17 आलिया खान, कास्टिज्म एंड कोमोडिफिकेशन ऑफ वूमेन: वॉच शॉर्ट फिल्म ‘मुलाकारम’, द टैलेंटेड इंडिया, 27 फरवरी, 2022. https://shorturl.at/vqoLu 
18 कुमार भास्कर, हिंदी फिल्मों में इन कारणों से नायक नहीं होते दलित, आदिवासी और पिछड़े, फॉरवर्ड प्रेस, 15 मई 2020. 
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20 अजय ब्रह्मात्मज, हिंदी फिल्मों में दलित चरित्र, फिल्म लॉन्ड्री, न्यूज़लॉन्ड्री डॉट कॉम, 16 अप्रैल 2021. 
21 अजय ब्रह्मात्मज, हिंदी फिल्मों में दलित चरित्र, फिल्म लॉन्ड्री, न्यूज़लॉन्ड्री डॉट कॉम, 16 अप्रैल 2021. 
22 अजय ब्रह्मात्मज, हिंदी फिल्मों में दलित चरित्र, फिल्म लॉन्ड्री, न्यूज़लॉन्ड्री डॉट कॉम, 16 अप्रैल 2021. 
23 योगेश मैत्रेय., भारतीय सिनेमा और दलित पहचान : भारत जैसे जातिग्रस्त समाज के लिए ज़रूरी है ‘पेरारियात्तवर’, Janchowk.com, 19 अगस्त 2021. 
24 योगेश मैत्रेय., भारतीय सिनेमा और दलित पहचान : भारत जैसे जातिग्रस्त समाज के लिए ज़रूरी है ‘पेरारियात्तवर’, Janchowk.com, 19 अगस्त 2021.

साहिल
वरिष्ठ शोधार्थी (पी.एच.डी.), इतिहास विभाग, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर
  
सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved  & Peer Reviewed / Refereed Journal 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन  : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग  : विनोद कुमार

1 टिप्पणियाँ

  1. अच्छा प्रयास लेकिन सिनेमाई व्यावसायिकता व हकीकत के तथ्यों के साथ न्यायसंगत व्यवहार एक शोधार्थी के लिए कठिन चुनौती है. दलित विमर्श की बडी विडम्बना है कि इसे समझने के लिए इसे जीना पडता है जो हर किसी के लिए संभव नहीं है. प्रस्तुत पेपर में दलित शब्द की उत्पत्ति अर्थ व विकास पर फोकस जरूरी है.

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