'अपनी माटी' का 19वाँ अंक:दलित-आदिवासी विशेषांक/अतिथि सम्पादक-जितेन्द्र यादव




  सम्पादकीय

शिक्षा-व्यवस्था और आदिवासी /सौरभ कुमार
दलित आदिवासीः एक संघर्षमय जीवन/शालिनी अस्थाना

परत दर परत
इतिहास के पृष्ठों पर अनलिखी आदिवासी आग्नेय गाथा: मगरी मानगढ़/डॉ. नवीन नन्दवाना
आत्मकथाओं में अभिव्यक्त स्त्री जीवन का साक्ष्य/मुदनर दत्ता सर्जेराव
जंगल के दावेदार:आदिवासी संघर्ष /माजिद मिया
विस्थापन का संकट आदिवासी प्रतिरोध और हिंदी उपन्यास / डा. शशि भूषण मिश्र
वास्तविकता की परतें उड़ेधती “आहत देश”/ मुजतबा मन्नान
भीष्म साहनी के कबीर/कॅंवल भारती


अनुवाद:पंजाबी कहानी 'चीख'/गुरमीत कडियावली(अनुवादक-सुरजीत सिंह वरवाल)

ग्राउंड रिपोर्ट
राजस्थान में गरीब दलितों पर भीषण हमले/सुशील कुमार 
समीक्षा
अपने समय- समाज से संवाद करते शिवमूर्ति के उपन्यास/ धनंजय कुमार साव
आदिवासी अस्मिता और बंदूक से निकलते सवाल/डॉ. सुनील कुमार यादव
अम्बेडकरवादी चेतना का दस्तावेज : दुनिया बदलने को किया वार/सोनटक्के साईनाथ चंद्रप्रकाश

शोध
आदिवासी स्त्री-अस्मिता एवं अस्तित्व के सवाल और निर्मला पुतुल/आरले श्रीकांत लक्ष्मणराव
गिरीश कर्नाड की नाट्य कृति 'अग्नि और बरखा' में अभिव्यक्त समकालीन प्रश्न / सुनैना देवी
आदिवासी कविता:स्त्री अस्मिता/ धीरेन्द्र सिंह
संजीव के उपन्यासों में अंधविश्वास/डॉ. रमाकान्त
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दलित-आदिवासी विशेषांक 
अतिथि सम्पादक-जितेन्द्र यादव (09001092806)
आवरण चित्र-रामदेव मीणा (मो-09414946739),चित्रांकन-मुकेश बिजोले(मो-09826635625)


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1 टिप्पणियाँ

  1. अपनी माटी पत्रिका का दलित आदिवासी विशेषांक इन मायनों में मुझे बेहद पसंद आया कि वह सच को बिना किसी लाग लपेट और डर के दलित और आदिवासी समाज की समस्याओं, जटिलताओं और उनके संघर्ष को प्रस्तुत करता है। यानी कि जो यथार्थ है सब ज्यों का त्यों पेश करना। संपादकीय पढ़कर तो मेरे रोंगटे खड़े हो गए कि जिन विषयों पर बात करना आज के समय से सबसे ज़्यादा जरूरी है उन्हें धर्म की आड़ में (आसाराम जैसे बाबाओं या राधे मां जैसे माताओं के संदर्भ में) पीछे धकेला जा रहा ताकि अपने स्वार्थ की पूर्ति की जा सके। उनका एक मात्र लक्ष्य है आम जनता से लेकर शिक्षित व्यक्ति को अंधभक्त बनाकर ऐशोआराम की ज़िंदगी व्यतीत करना। इन्हीं लक्ष्यों की पूर्ति हेतु आज का प्रभुत्व या वर्चस्व वादी वर्ग एक तरफ आदिवासी समाज का शोषण कर रहा है वही दूसरी और दलित समाज को अछूत या शूद्र कहकर मुख्यधारा से अलग करता आया जबकि इनका स्वयं का कहना है वे मनुष्य की तरह समझे जाएं। आदिवासी अनेक समस्याओं और उनके संघर्ष को इस महत्वपूर्ण अंक में बयाँ किया गया। आदिवासी एवं दलित समाज के लेखकों के अलावा गैर आदिवासी और गैर दलित लोग भी इस सम्बंध में अपने विचार पेश कर रहे हैं। पूंजीवादी व्यवस्था औऱ शासन की विकासवादी नीतियों से आदिवासी का जीवन नरक बन गया है तो ब्राह्मणवादी सत्ता या उच्च वर्ग ने दलित समाज को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। सकारात्मक पहलू तो दूसरी तरफ ऐसे रचनाकार केवल अर्थोपार्जन, पदोन्नति या सम्मान प्राप्ति ले यह काम कर रहे हैं। संक्षेप में यह अंक कई मायनों में मुझे पठनीय लगा जिनमें आदिवासी व दलित समाज की समस्याओं को साहित्य के संदर्भ में समझने, उनकी वैचारिकी, आदिवासी के जल जंगल ज़मीन से जुड़ाव आदि संदर्भ महत्वपूर्ण हैं । आदिवासी और दलित विचारधारा को समझने के लिए साक्षात्कार भी इस अंक में संग्रहनीय है। संपादित अंक के लिए आप बधाई के पात्र है। साथ ही एक सुझाव यह कि यदि दोनों समाजों को अलग अलग अंको में सम्पादित किया जाता तो शायद इस अंक का महत्व अतुलनीय होता ऐसा मेरा मानना है।


    सुशील कुमार, पीएचडी शोधार्थी
    जम्मू से

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