शोध आलेख : जगदीशचंद्र माथुर और मोहन राकेश के ऐतिहासिक नाटकों में आधुनिकताबोध / सुरभि नामदेव एवं डॉ. धीरेन्द्र शुक्ल

जगदीशचंद्र माथुर और मोहन राकेश के ऐतिहासिक नाटकों में आधुनिकताबोध
- सुरभि नामदेव एवं डॉ. धीरेन्द्र शुक्ल 

शोध सार : जगदीशचंद्र माथुर और मोहन राकेश हिन्दी के समकालीन नाटककार हैं। अपने युग के नाट्य-साहित्य के बदलते हुए परिवेश और युग-प्रवृत्तियों को दोनों ही नाटककारों ने बखूबी स्पर्श किया है। इनके नाटकों के कथ्य-शिल्प का हिन्दी के नये नाट्य-शिल्प के संदर्भ में अपना मौलिक महत्व है। किसी भी साहित्य-विधा का कथ्य-शिल्प जहाँ एक ओर अपने सांस्कृतिक संस्कारों को वहन करने में गौरवान्वित होता है, वहीं दूसरी ओर उसका महत्व आधुनिक युग-बोध का सशक्त प्रतिनिधित्व करने पर भी निर्भर करता है। आधुनिकता बोध वस्तु-शिल्प का एकअनिवार्य और महत्वपूर्ण अंग है। किसी भी रचनाकार की रचनात्मक कृति की लोकप्रियता उसकी सर्वग्राहिणी क्षमता में निहित होती है और यह क्षमता वर्तमान यथार्थ जगत् से ही प्राप्त होती है, जो उसे कालजयी बनाती है। प्रस्तुत शोधपत्र में जगदीशचंद्र माथुर और मोहन राकेश के ऐतिहासिक नाटकों में इतिहास की घटनाओं के माध्यम से उद्घाटित हुए आधुनिक यथार्थ को प्रकट करने की प्रायोगिक शैली की सार्थकता पर विचार किया गया है। माथुर और राकेश दोनो ने ही अपने एतिहासिक नाटकों में इतिहास की घटनाओं को केवल आधार रूप में स्वीकार किया है, जिसके माध्यम से उन्होंने तत्कालीन और वर्तमान परिस्थितियों के सामाजिक यथार्थ को प्रस्तुत करने का सफल प्रयोग कर रंगमंच को नए प्रयोग की शैली से परिभाषित किया है।

बीज शब्द : जगदीशचंद्रमाथुर, मोहन राकेश, समकालीन, नाट्य-साहित्य, कथ्य-शिल्प, ऐतिहासिक नाटक, रंगमंच

मूल आलेख :

जगदीशचंद्र माथुर - जगदीशचंद्र माथुर का पहला ऐतिहासिक नाटक कोणार्कहिन्दी-नाटक और रंगमंच के इतिहास में नव-सृजन का सूत्रपात करता है। नाटक का कथ्य ऐतिहासिक है। इतिहास को मूल आधार बनाकर कल्पना, जनश्रुति और किवदंतियों के सामंजस्य से कोणार्कनाटक का कथ्य रचा गया। उत्कल के पूर्व समुद्र तट पर कोणार्कमंदिर का निर्माण हो रहा था तब कलाप्रेमी महाराज नरसिंह देव (राज्यकाल 1238-1264) बंग-प्रदेश में युद्ध पर थे। महामात्य शिल्पियों पर अत्याचार कर रहे थे। शिल्पी बालक धर्मपद अपनी युक्ति से शीर्ष पर कलश स्थापित करने में सफल होता है। युद्ध से लौटने पर शिल्पी बालक धर्मपद महाराज को शिल्पियों पर हुए अत्याचार की गाथा सुनाता है। तभी महामात्य चालुक्यराज सशस्त्र विद्रोह और आक्रमण करता है। शिल्पी धर्मपद महाराज को खतरे से निकालता है। युद्ध क्षेत्र में धर्मपद के गले से टूटकर गिरा कण्ठहार महाशिल्पी विशु को अपनी प्रेयसी शबर कन्या का स्मरण कराता है और यह ज्ञात होता है कि धर्मपद उन्हीं का पुत्र है। पुत्रमोह में महाशिल्पी विशु, धर्मपद को युद्ध से रोकना चाहता है लेकिन आतताइयों से युद्ध करते हुए धर्मपद अपना उत्सर्ग करता है। महाशिल्पी विशु अपनी कला के माध्यम से शत्रुओं से प्रतिशोध लेने में सफल होकर मृत्यु को वरण करता है।

कोणार्क कोणार्कमें समकालीन कथ्य को सम्प्रेषित करने हेतु इतिहास को मात्र हल्का-सा आधार बनाया गया है। हिन्दी-साहित्य में इसके पहले ऐतिहासिक कथा को सम्पूर्ण रूप में ग्रहण कर, उसके अच्छे-बुरे पक्षों का उद्घाटन करते हुए मानवीय चेतना का विश्लेषण किया गया है। इस अभिनव प्रयोग से कोणार्ककी कथा-वस्तु महत्वपूर्ण हो उठती है...कोणार्क वह पहला नाट्य-प्रयोग है जो परम्परा को नये स्तर से जोड़ता है।1 नाटक के कथ्य के विषय में स्वयं नाटककार ने लिखा है...मुझे तो लगा जैसे कलाकार का युग-युग से मौन पौरूष, जो सौंदर्य सृजन के सम्मोहन में अपने को भूल जाता है। चिरंजन मौन ही जिसका अभिशाप है, उस पौरूष को मैंने वाणी देने की धृष्टता की है।2 कोणार्क कलाकार, उसके पौरूष और उसकी कला का अनुरंगण है...कोणार्क में कलाकार और राज्य के बीच तथा कलाकार की अपनी प्रेरणा के विभिन्न स्रोतों और स्थितियों के बीच सम्बन्ध या संघर्ष की खोजबीन है।3 

कोणार्कके कथ्य के मूल में आधुनिक कलाकार हैं। शासन से सामंजस्य स्थापित कर चलने वाला सहनशील पर अनुपम सौंदर्य-सृष्टा कलाकार महाशिल्पी विशु पुरानी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता है। पुत्र शिल्पी धर्मपद, पिता विशु से बहुत अधिक युक्ति-पटु, मुखर और विद्रोही, तेजस्वी शिल्पी धर्मपद, कलाकारों की आधुनिक पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता है। कलाकार की कला उन्हें प्रतिशोध का सम्बल प्रदान करती है। ध्यान से देखें तो अचरज होता है कि उसकी (कोणार्क) विषय-वस्तु पर इस अपूर्ण स्थिति की प्रतीकात्मक छाप कितनी गहरी है। मंदिर का निर्माण लगभग पूरा हो गया है केवल शिखर की प्रतिष्ठा नहीं हो पा रही है। समस्या है पुराने शिल्पी और उसके अप्रतिष्ठित नये उत्तराधिकारी की। यह अत्युक्ति होगी यदि हम कहें कि यहाँ से आधुनिक नाट्य लेखन में समकालीनता का नया बोध अज्ञात रूप से प्रस्फुटित होने लगता है।4

इतिहास के सूक्ष्म ग्रहण के माध्यम से समकालीन संदर्भों को सम्प्रेषित करने का नया-शिल्प कोणार्क नाटक के कथ्य से हिन्दी में पहली बार दिखाई देता है। यही उसकी उपादेयता और प्रासंगिकता है। वस्तु-संग्रह के मूल में मुख्य भूमिका कलाकार के शाश्वत अंतर्दहन की रही है और यह नाटक उसी का प्रतीक है।5 आधुनिकता बोध के स्तर से कोणार्कबौद्धिकता, विद्रोह, पुरूष-चेतना और मानवतावादी दृष्टिकोण प्रदान करता है। सत्ता और कलाकार का जो संघर्ष इस नाटक में है, वह वर्तमान प्रासंगिकता को उजागर करता है। ऐतिहासिक संदर्भों को समकालीन युग-बोध के संदर्भ में ग्रहण करने के जिस शिल्प की खोज इस नाटक में है उसका आगे चलकर स्वागत हुआ।कोणार्क में स्वच्छंदतावादी, अभिजात्यवादी और यथार्थवादी तत्वों का अद्भुत समाहार है। काव्यात्मकता और दृश्यात्मकता के संलयन से विनिर्मित कोणार्कजगदीशचंद्र माथुर की ही अप्रतिम कृति नहीं, हिन्दी नाट्य-साहित्य की भी एक महत्तम उपलब्धि है।6 कोणार्क नाटक की वस्तु-प्रतीकात्मक सहज-बोध प्रदान करती है।

शारदीया जगदीशचंद्रमाथुरकादूसराऐतिहासिकनाटकशारदीयाका कथानक अट्ठारहवीं शताब्दी के मराठा इतिहास से संबंधित है। जिसकी प्रेरणा नाटककार को नागपुर संग्रहालय में रखी पांच गज लम्बी और पांच तोले वजन की असाधारण कारीगरी से बनी साड़ी से मिली। इतिहास यहाँ भी केवल माध्यम है। नायक और नायिका के बचपन का साहचर्य प्रेम में परिणित होकर बिछोह में बदलता है। पिता की इच्छा से बायजाबाई का विवाह दौलत राव सिंधिया से होता है। प्रेमी नरसिंहराव गुप्तचर होते हुए निजाम की युद्ध योजनाओं को विफल करने में सफल होता है लेकिन स्वयं के लिए हुए षडयंत्र से पराजित। वह मृत्युदण्ड से तो बच जाता है लेकिन ग्वालियर के कारागार में बन्दी बना दिया जाता है। जहाँ वह निजाम के कारीगरों से सीखी हुई कला के अभ्यास से पाँच गज की पांच तोला वजनी साड़ी प्रेयसी बायजाबाई की स्मृतियों से प्रेरणा लेकर बुनता है। सिंधिया से नरसिंह राव की मुक्ति का आदेश लेकर शारदीया (बायजाबाई) खुद कारागार में पहुंचती है। प्रेयसी बायजाबाई को महारानी शारदीया के रूप में देखकर, चकित नरसिंह राव अपने हाथ से बुनी साड़ी, महरानी को प्रदान करता है और अपना शेष जीवन उसी कारागार में रहकर बिताने का निश्चय करता है।

शारदीया के कथानक में शिल्प की बारीक कारीगरी और नाटकीयता कौतूहल से युक्त है...चयन की पूर्ति जगदीशचंद्र माथुर कथ्य और शिल्प की बारीकी से करते हैं... कथानक की विभिन्न रूढ़ियों, ताने-बानें, अनुभूति, कल्पना तथा रागतत्व के अंतः सूत्रों के कलात्मक उपयोग से स्पष्ट है कि शारदीयाकी नाटकीय अवधारणा में जगदीशचंद्र माथुर ने बड़ी कारीगरी से काम लिया है, जिसमें शिल्प की बारीकियों पर विशेष ध्यान दिया गया है।7

कथानक का ऐतिहासिक घटना का काल लगभग साढ़े तीन वर्ष का है। पहले और दूसरे अंक की घटनाएँ 1794-1795 की है और तीसरे अंक की घटना उससे दो वर्ष बाद की। अनिवार्य नाट्य-स्थितियों में इतिहास के सूक्ष्म अंश ग्रहण किए गए हैं। बहुत सारे घटना-प्रसंग छोड़ दिए गए हैं। जिससे नाटक की कथावस्तु व्यापक बोझिल होकर सुगठित, सहज और मोहक बन गई है जो अपूर्व केन्द्रीय प्रभाव छोड़ती है। कोणार्कके समान इस नाटक में भी नाटककार ने इतिहास को, आधुनिक रंग-बोध देने के एक सम्बल के रूप में लिया है, लेकिन स्वाभाविक रूप में, नाटककार की कल्पना, इतिहास के बीच में, इस प्रकार सच्चाई से बैठकर वास्तविक बन गई है। जो वस्तु-रचना और चयन की अद्भुत कारीगरी का एक उदाहरण प्रस्तुत करती है। कुछ रंग-समीक्षकों ने शारदीयानाटक के कथ्य के स्तर पर मूल भाव-स्थिति और वस्तु-पृष्ठ भूमि की विश्रृंखलता निरूपित की है लेकिन यह भूलना नहीं चाहिए कि हिन्दी रंग-कार्य की ये प्रारम्भिक उपलब्धियाँ हैं जिनमें कुछ कमियाँ स्वाभाविक हैं। बाह्य घटना-प्रसंग की कुछ स्थूल रेखाओं की अतिरिक्तता लिये हुए उनके (माथुर) नाटकों का ऐतिहासिक होना होना कोई विशेष अर्थ नहीं रखता। मुख्य वस्तु उनमें कल्पना है, जो तिमिराच्छन्न खण्डहरों में वितरण करती हुई ज्ञात इतिहास के लिये अज्ञात तथ्यों की सृष्टि करती है।8

कोणार्कके समान कलाकार का अंतर्दहन ही शारदीयानाटक के कथ्य का समकालीन स्वर है....कोणार्क और शारदीया में कलाकार और राज्य के बीच तथा कलाकार की अपनी प्रेरणा के विभिन्न स्रोतों और स्थितियों के बीच सम्बन्ध या संघर्ष की खोजबीन है।9शारदीयानाटक के कथ्य से समसामायिक संदर्भ और मानव-मूल्य बड़े कौशल से उभारे गये हैं। नाटककार ने इन्हें नाटक की मूल संवेदना से जोड़ा है। नरसिंह राव की कला का विकास, मुस्लिम कारीगरों के बीच होता है जब वह कहता है..हैदराबाद के मुसलमान कारीगरों का हुनर मेरी अंगुलियों में बस गया है। सरदार, वही मेरा सम्बल होगा। जब तक जिंदा हूँ तब तक बुनता रहूँगा, रूपहले और सुनहरे पल्ले।10 हिंदू-मुस्लिम एकता का यह संदर्भ कथ्य में किसी लक्ष्य पूर्ति के लिए खींच कर लाया हुआ नहीं है, बल्कि निजाम और मराठों के बीच खुर्दा-युद्ध संधि की शर्तों में समाहित एक उदात्त सत्य है, जो ऐतिहासिक है। नरसिंह राव, हिंदु-मुस्लिम सहिष्णुता के इसी मानवतावादी लक्ष्य के लिये संघर्ष करता है।

नाटककार का नरसिंह राव के माध्यम से इतिहास के इस कटु-सत्य को आधुनिक भाव-बोध के स्तर पर सम्प्रेषित करने का सुप्रयास सफल है...यह क्या कर रहे हो? क्या मराठों का युद्ध मुसलमानों को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए हो रहा है? हमारी ही फौज में कितने ही तोपची, कितने ही रिसालेदार मुसलमान हैं, जिनकी ईमानदारी और हिम्मत पर हमें गर्व है।11शारदीयाके कथ्य के राजनीतिक प्रपंचों से कुछ अंशों में आधुनिक छल-प्रपंच पूर्ण राजनीति की भी गंध मिलती है। कथानक में, सत्ता और स्वार्थ की तामसिक शक्तियों और पवित्र प्रेम की सात्विक पुकारों के बीच संघर्ष है। एक सामंत वर्ग है, दूसरा शोषित वर्ग है। शारदीयानाटक में कोणार्क की भांति एक तीसरा महत्वपूर्ण शाश्वत-संदर्भ भी उभरता है। वह है किसी भी कारण से सत्ता द्वारा कलाकार और कला का शोषण एवं उसके बीच घुटते हुए कलाकार का कारुणिक अंतर्दहन।

पहला राजा - माथुर का तीसरा ऐतिहासिक नाटक पहला राजापूर्व के दोनोंऐतिहासिक नाटकों से भिन्न है। पहला राजा’, ‘आषाढ का एक दिनऔर लहरों के राजहंसकी नयी मंचीय विकास धारा की उपलब्धि है। इस नाटक की कथावस्तु, वेद, पुराण और महाभारत के प्रसंगों को लेकर तैयार की गई है। प्राचीन प्रसंगों से बुनी हुई कथावस्तु, प्रतीकों के माध्यम से, अन्योक्ति शिल्प में किया गया है। नाटककार ने इस विषय में स्पष्ट किया है..वैदिक और पौराणिक, साहित्य, पुरातत्व एवं इतिहास, लोकगीत और बोलचाल-इन सभी में मुझे प्रतीकों के उपकरण मिले हैं, उन समस्याओं को प्रकट करने के लिये, जिनसे मैं इस नाटक में जूझता रहा हूँ। वे समस्याएँ सर्वथा आधुनिक हैं, ऐतिहासिक यथार्थवादी। यह तो एक मॉर्डन एलिगोरी-आधुनिक अन्योक्ति का-मंचीय रूप है।12

इस प्रतीक नाटक की कथा वस्तु व्यापक और संश्लिष्ट है। वेद, पुराण, उपनिषद्, महाभारत, इतिहास और लोक-प्रवृत्ति, सभी क्षेत्रों से कथा के लिये कुछ कुछ सूत्र एकत्र किये गये हैं और उन्हें कल्पना विधायिनी शक्ति द्वारा नाटककार ने एक सूत्र में बांधकर एक सुंदर कथानक का निर्माण किया है। पुरातन प्रसंगों को एक कथा-सूत्र में सम्बद्ध करने में नाटककार की विलक्षण कल्पना ने अपूर्व योग दिया है। पुरातन प्रसंग को अपने उद्देश्य के अनुरूप मंचीय-सम्प्रेषण देने में भी कल्पना का विलक्षण सहयोग है, जैसे शव-मंथन से जंघापुत्र और भुजापुत्र के उत्पन्न होने के प्रसंग को मुखौटों के माध्यम से पृथु और कवष को प्रकट होते हुए दिखाकर, नाटककार ने इस प्रसंग को ऋषि-मुनियों का मात्र नाटक कहकर, वस्तु को यथार्थ से संयुक्त किया है। इसी प्रकार भूचण्डिका-पूजन के प्रसंग को पृथु को स्वप्न में दिखाकर दो वर्गों के संघर्ष का बोध बहुत थोड़े में दिखा दिया है।

पहला राजानाटक में प्रतीकों, बिम्बों और अन्योक्तियों का जो ताना-बाना बुना गया है, उसका मूल उद्देश्य आधुनिक संदर्भों को उजागर करना है। आधुनिकता-बोध की दृष्टि से यह नाटक कोणार्कसे आगे बढ़ा हुआ है...पहला राजा उससे अगली सीढ़ी है। वह कोणार्ककी परम्परा का नाटक होकर अंधायुग’, ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘लहरों के राजहंस’, ‘शुतुरमुर्गकी परम्परा में आता है जिनमें इतिहास मिथक का उपयोग आधुनिकता बोध को उजागर करता है।13राजा बेन का शव भारत से उठ चुकी हुई ब्रिटिश सत्ता का प्रतीक है। सुनीथा उन प्रवृत्तियों का प्रतीक है जिसने इस देश में ब्रिटिश-सत्ता को जन्म दिया है। अब उसके मरने पर भी उसे सुरक्षित रखने का प्रयत्न कर रही है। पहला राजा पृथु ब्रिटिश-सत्ता का मानस पुत्र प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू का प्रतीक है। मुनिगण आज के प्रबुद्ध मृत सत्ता के मंथन से ही उत्पन्न मानसपुत्र को राजा बनाते हैं और स्वयं मंत्रित्व ग्रहण कर सारे अधिकार हथिया लेते हैं।14 इस प्रकार पहला राजाअपने कथ्य से स्वतंत्रता के बाद के भारत की व्यवस्था की विसंगत तस्वीर पेश करता है।

मुनियों के क्रिया कलाप सहज ही वर्तमान युग के स्वार्थी नेताओं-जिनके अलग-अलग दल हैं और पूंजीपतियों की ओर संकेत करते हैं जो निजी स्वार्थ के लिए शासन व्यवस्था पर नियंत्रण रखकर उसे अपने संकेतों पर नचाते हैं।15 इसी प्रकार मुनियों का कपट-व्यवहार, स्वार्थ-साधन, आर्य-दस्यु का भेदभाव, वाक्पटुता और छल छध्पूर्ण प्रवृत्ति सभी आधुनिक संकेत देते हैं।

राजा पृथु ने आर्य सभ्यता में पहली बार राजनीतिक, सामाजिक एवं कृषि सम्बन्धी व्यवस्था का सूत्रपात किया था। इस प्रकार इन क्षेत्रों में वह युगांतरकारी परिवर्तन का प्रतीक सिद्ध हुआ। स्वतंत्रता के बाद भारत में राजनीतिक, सामाजिक और कृषि व्यवस्था के प्रमुख सूत्रधार प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू रहे। पृथु का आरोपित प्रतीकार्थ नेहरू के साथ सटीक बैठता है। पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से औद्योगिक, आर्थिक और कृषि क्षेत्रों में युगांतरकारी निर्माण-कार्यों का प्रारम्भ नेहरू ने ही किया। नेहरू को भी सुविधाभोगी वर्गों, प्रशंसकों और मंत्रिमंडलीय सदस्यों से अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ा। उन्होंने देश की सांस्कृतिक एकता और जन-शक्ति के उदय का जो सपना देखा था, उसमें उन्हें अपने सहयोगियों के कारण ही वांछित सफलता नहीं मिली। नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल के सम्पूर्ण राजनीतिक और रचनात्मक परिवेश का बोध पृथु के आचरण से होता है..गर्ग, अत्रि, शुक्राचार्य, मूतमागध, पृथु, कवष, सुनीथा, दासी, अर्चना और उर्वी और हर पात्र एक अन्योक्ति है, एक संकेत है जिसके माध्यम से नेहरू-युग की आधुनिकता या आधुनिकता का पहला दौर उजागर होने लगता है। इस तरह नाटक में समकालीनता इनके आधार पर उभरने लगती है...योजनाओं की स्थापना, भारत-चीन युद्ध, मंत्रियों के आपसी द्वेष और षड्यंत्र, घाटे का बजट या राजकोष का खाली हो जाना, देश की एकता का सवाल पूंजी-पतियों के बड़े-बड़े घर, मुनाफाखोरी, जनता का शोषण, अन्न की कमी, पिछड़ी जातियों का मसला, संविधान की शपथ।16

 कवष इस नाटक का एक ऐसा जनप्रिय और पुरूषार्थी नेता है जिसमें निर्माण कार्यों को पूरा करने की ललक है, लेकिन अवसरवादी और सुविधा भोगी अधिकार सम्पन्न लोगों द्वारा उसकी उपेक्षा होती है और पीछे ढकेल दिया जाता है। कवष भी अपनी भूमिका से नेहरू युगीन समकालीनता को चरितार्थ करता है। पहला राजाकी आधुनिकता रचनात्मक स्तर से भी सांकेतिक होती है। कथ्य के अनुरूप संदर्भ और शिल्प प्रदान करने में नाटककार को निश्चय ही सफलता मिली है...प्रसाद के उपरांत इस प्रकार का शोधपूर्ण यह प्रथम नाटक है जिसमें आधुनिक समस्या का हल प्राचीन युग के प्रतीकात्मक वर्णन के आलोक में निकाला गया है।17

मोहनराकेश मोहनराकेशकेपहलेऐतिहासिकनाटकआषाढ़ का एक दिनके कथानक का आधार अतीत की पृष्ठभूमि है। इसमें कवि कालिदास के जीवन के मूलतः काल्पनिक प्रसंग हैं। हिन्दी में समकालीन नाट्य-लेखन की शुरूआत इस नाटक से होती है..हिन्दी के ढेरों तथाकथित ऐतिहासिक नाटकों से आषाढ़ का एक दिनइसलिए मौलिक रूप से भिन्न है कि उसमें तो अतीत का तथ्यात्मक विवरण है, पुनरुत्थानवादी गौरवगान और भावुकतापूर्ण अतिनाटकीय स्थितियाँ। उसकी दृष्टि कहीं ज्यादा आधुनिक तथा सूक्ष्म है, जिसके कारण वह सही अर्थ में आधुनिक हिन्दी नाटक की शुरूआत का सूचक है।18

आषाढ़ का एक दिन आषाढ़ का एक दिननाटक का कथानक कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। इस नाटक के साथ ही हिन्दी में रंगमंचीय दृष्टि मुखर होती है। यद्यपि समकालीनता को सम्प्रेषित करने के लिये ऐतिहासिक कथ्य ग्रहण की शुरूआत हिन्दी में कोणार्कनाटक से ही हो चुकी थी, पर उसका रंगकार्य और दृश्यात्मक विधान कठिन और बोझिल है। आषाढ़ का एक दिननाटक उसका एक अगला और ठोस कदम है। यहाँ नाटककार का दृष्टिकोण दृष्टव्य है..साहित्य में इतिहास अपनी यथातथ्य घटनाओं में व्यक्त नहीं होता, घटनाओं को जोड़ने वाली ऐसी कल्पनाओं में व्यक्त होता है जो अपने ही एक नये और अलग रूप में इतिहास का निर्माण करती है।19आषाढ़ का एक दिननाटक की कथावस्तु हिन्दी में पहली बार कथ्य का एक बिल्कुल नया स्वरूप प्रस्तुत करती है, जो ऐतिहासिक स्थितियों में नाटकीय स्थितियाँ उत्पन्न करती हैं और जो सृजनशील व्यक्तित्व का काव्य बन गई है..अतीत की पृष्ठभूमि के बावजूद यह नाटक वास्तव में एक सर्जनशील व्यक्ति के अंतर्विरोधों के संदर्भ में स्त्री-पुरूष सम्बन्धों का अन्वेषण करता है और इस प्रकार समकालीन प्रश्न को दूरस्थ ऐतिहासिक स्थिति से जोड़कर देखता है। उसमें विचारों और दृष्टियों को चरित्रों की जीवन स्थितियों से इस प्रकार मिला दिया गया है कि एक साथ कई स्तरों पर अर्थ-सम्प्रेषण होता है।20

नाटक में आंतरिक और बाह्य संघर्ष मल्लिका-अम्बिका, कालिदास-विलोम, विलोम-मल्लिका, मातुल-कालिदास, मल्लिका-प्रियंगुमंजरी आदि में कई स्तरों पर उद्घाटित हुआ है। रंग-कौशल की दृष्टि से नाटक का पहला और तीसरा अंक सशक्त है। नाटककार द्वारा दिए हुए रंग-निर्देशों से उसके गहरे रंगानुभव का परिचय मिलता है... आषाढ़ का एक दिन एक सफल कृति है, इसे कल्पना का यथार्थ कहें या यथार्थ की कल्पना भाव-बोध का रोमानी धरातल कहें या यथार्थ का कटु अहसास, नियति का आंका कहें या आकांक्षा का भटकाव, यह एकबद्ध दृष्टि में बंधने वाला नाटक नहीं है। हर अन्वेषी दृष्टि के आगे यह अर्थ के नए स्तर खोलता है और बहुधा एक से अधिक संकेत देता है।21 समकालीनता के स्तर पर यह नाटक आधुनिक स्त्री-पुरूष की बेचैनी और संघर्षमयी स्थिति को चित्रित करता है।22 आधुनिक मानव के अपने परिवेश से टूटने, उखड़ने और पुनः वहीं लौटने की प्रक्रिया नाटक के केन्द्रीय चरित्र कालिदास में सहज ही दिखाई देती है। इसी प्रकार मल्लिका के चरित्र की भावुकता और आस्था के बावजूद विवशता में कहीं और से जुड़कर, टूटना भी आधुनिकता का ही बोध देने लगता है। इस नाटक में इतिहास मात्र एक सहारा है, आधुनिक दृष्टि प्रमुख है।

लहरों के राजहंस - मोहन राकेश का दूसरा ऐतिहासिक नाटक लहरों के राजहंसहै। जिस अर्थ में आषाढ़ का एक दिननाटक ऐतिहासिक कहा जा सकता है, ठीक उसी ऐतिहासिक कथा-चयन की परम्परा को लहरों के राजहंसभी प्रतिपादित करता है। इस नाटक की कथा महाकवि अश्वघोष कृत सौंदरानंदकाव्यम्से ली गई है। जिसमें भगवान बुद्ध के सन्न्यास प्रभाव और पत्नी सुंदरी की संसार के प्रति आसक्ति के आग्रह के बीच द्वन्द झेलते हुए कपिलवस्तु के राजकुमार नन्द को चित्रित किया गया है। नाटक की ऐतिहासिक कथा वस्तु के विषय में नाटककार मोहन राकेश के विचार उल्लेखनीय हैं...नाटक का नन्द इतिहास के नन्द की भांति आचरण नहीं करता। मैंने इस इतिहास-कथा का उपयोग इसलिए किया क्योंकि इस कथा के माध्यम से विशेष प्रकार की व्याख्या की जा सकती थी। बुद्ध और नन्द की पत्नी सुंदरी के बीच होने वाले संघर्ष का भी उपयोग करना चाहता था और वही दो बातें उस स्थिति का, जिसमें मैं अपने आप को आज पाता हूँ अर्थात्- दो शक्तियों के बीच विभाजित होने की नियति का-प्रतीक बन गई। वस्तुतः अपने भीतर के संघर्ष को मैं चित्रित करना चाहता था।23 नाटककार के इस कथन से स्पष्ट है कि इस नाटक की कथावस्तु में ऐतिहासिक कथा प्रमुख नहीं है, प्रमुख है उसके माध्यम से एक विशेष प्रकार की व्याख्या।

इस नाटक में नन्द, भोग और वैराग्य के द्वन्द में भटका हुआ प्राणी है सुंदरी, सांसारिक आकर्षण की प्रतीक है जो भौतिक उपभोग की प्रेरणा देती है भगवान बुद्ध वैराग्य के प्रेरक स्रोत हैं नन्द, भगवान बुद्ध के विरक्त मार्ग को भी बलात् स्वीकार करता है और पत्नी के मोहक साहचर्य में भी रहना चाहता है विडम्बना यह होती है कि स्पष्ट निर्णय के अभाव में वह किसी को भी ग्राह्य नहीं बना पाता अंततः नन्द, दोनों को ही छोड़ अपने रास्ते चल पड़ता है यहाँ शायद नाटककार कहना चाहता है कि...हर व्यक्ति को अपनी मुक्ति का पथ स्वयं ही तलाश करना है दूसरों के द्वारा खोजा गया पथ चाहे कितना भी श्रद्धास्पद हो या आकर्षक और मोहक हो किसी सम्वेदनशील व्यक्ति का समाधान नहीं बन सकता 24   

वास्तव में इस ऐतिहासिक कथ्य के माध्यम से नाटककार ने अपनी आत्मपरकता और विशेष जीवन दृष्टि को अभिव्यक्त किया है। प्रवृत्ति और निवृत्ति का संघर्ष तो पुरातन है। इस नाटक में नया-उद्घोष है.. व्यक्ति द्वारा निर्णय लेने का अनिवार्य द्वन्द। यह द्वन्द्व, व्यक्ति को कठिन स्थिति में भी ला देता है जहाँ तक वह निर्णय नहीं कर पाता। यहाँ नाटककार के आधुनिक अस्तित्ववादी चिंतन का स्पष्ट बोध होने लगता है...जीवन के श्रेय और प्रेय के बीच एक कृत्रिम और आरोपित विरोध है जिसके कारण व्यक्ति के लिये चुनाव कठिन हो जाता है और उसे चुनाव करने की स्वतंत्रता भी नहीं रह जाती। चुनाव की यातना ही इस नाटक का कथा बीज और उसका केन्द्र बिंदु है।25 इसके अतिरिक्त कई स्तरों से लहरों का राजहंसके कथानक के आधुनिकता का बोध होता है। 

नन्द का द्वन्द आधुनिक वैज्ञानिक युग के मनुष्य के द्वन्द्व को संकेतित करता है। आज का मनुष्य भी पार्थिव-अपार्थिव मूल्यों के बीच निश्चय-अनिश्चय की नन्द की स्थिति को झेल रहा है। इस नाटक के बहुत से काल्पनिक सांकेतिक संदर्भ भी आधुनिकता का बोध देते हैं। श्याममांग के सम्वाद विसंगत स्थिति की आधुनिकता का बोध देते हैं। नन्द के सम्वाद भी आज के हताश पीड़ित मानव का बोध देते हैं- मैं चौराहे पर खड़ा एक नंगा व्यक्ति हूँ जिसे सभी दिशाएँ लील लेना चाहती हैं और अपने को ढ़कने के लिए जिसके पास आचरण नहीं है। जिस किसी दिशा की ओर पैर बढ़ाता हूँ लगता है, वह दिशा स्वयं अपने धनुष पर डगमगा रही है और मैं पीछे हट जाता हूँ।26 इस नाटक का कथानक आधुनिक जीवन के स्त्री-पुरूष सम्बन्धों को भी उठाता है। आज के स्त्री-पुरूष सम्बन्धों की बिडम्बना शायद एक-दूसरे को समझने की है। नन्द और सुंदरी के क्षोभ, द्वन्द और अकेलेपन के अहसास से भी आधुनिकता झलकने लगती है। नाटक का अंतःबोध आधुनिकता को तीव्रता से मुखर करता है।

निष्कर्ष : जगदीश चंद्र माथुर और मोहन राकेश ने परम्परागत वस्तु-विन्यास की लीक पर ही प्रयोगशील कथानकों का सृजन किया है। इसी कारण नाट्य-सृजन के क्षेत्र में वस्तु-विन्यास के किसी एक रूप को उन्होंने परम्परा या रूढ़ि में स्वीकार नहीं किया है। शैली, शिल्प और कथ्य, तीनों ही दृष्टि से उनके ऐतिहासिक नाटक केवल प्रयोगशील हैं बल्कि इतिहास की कहानियों से आधुनिकता के बोध पर प्रहार भी हैं। जगदीश चंद्र माथुर ने अपने तीनों ही नाटकों की वस्तु-रचना में कोई एक रूढ़ स्वरूप विकसित नहीं होने दिया। वे प्रयोगशीलता के पक्षधर रहे..माथुर ने नाट्य-लेखन के किसी एक रूप को परम्परा और रूढ़ि के रूप में नहीं स्वीकार किया और नाटकों में प्रयोगशीलता यहीं से उत्पन्न होती है।27 मोहन राकेश, माथुर से एक कदम आगे बढ़े हुए हैं। राकेश ने समूचे पारम्परिक वस्तु-विन्यास की प्रक्रिया को ही नहीं छोड़ा, अपितु कथानक में घटनाओं के संयोजन को भी आवश्यक नहीं माना... मोहन राकेश ने परम्परागत वस्तु-विन्यास को त्यागकर, घटनाक्रम के स्थान पर स्थिति सर्जन के सहारे कथानक को गति प्रदान की।28 दोनों ही नाटककारों के ऐतिहासिक नाटकों के अनुशीलन से यह स्वतः निष्कर्ष निकलता है कि उनके नाटकों में आधुनिकता-बोध के अनेक दौर हैं, जिनका सम्प्रेषण अलग-अलग स्तर से अनेक रूपों में किया गया है। उनकी नाट्य-कृतियाँ, आधुनिकता को उजागर करने के लिये ही अस्तित्व अर्जित करती है।  

ऐतिहासिक कथानकों का चयन, माथुर और राकेश ने समान प्रवृत्ति से प्रेरित होकर युग-संदर्भ को उजागर करने के लिये किया है..माथुर ने इतिहास को प्रसाद की भांति किसी युग-विशेष के अप्रकाशित अंश को प्रकाशित कराने के लिए नहीं स्वीकार किया है.. इतिहास को आदर्श की अपेक्षा यथार्थ की दृष्टि से देखने का प्रयास किया। उन्होंने इतिहास को समकालीनता का नया-बोध दिया।29 मोहन राकेश ने भी नाममात्र को कालिदास का आधार ग्रहण किया है..मोहन राकेश ने नाममात्र के ऐतिहासिक आधार को स्वीकार करते हुए मनोवैज्ञानिक धरातल पर द्वन्द ग्रस्त मानवीय संवेदना को अभिव्यक्ति प्रदान की है।30 वस्तु-चयन के स्रोत व्यापक हैं, उन्होंने इतिहास, जनश्रुति और मिथक सभी क्षेत्रों से कथा सामग्री एकत्र की है और उसमें उनकी अनुभूति और कल्पना का महत् योगदान है। उन्होंने इन सबका द्योत तैयार करके, युगीन संदर्भ को उजागर करने वाली कथा की मार्मिक रचना की है। अतः कहा जा सकता है कि इतिहास की कहानियों से आधुनिकता का बोध कराने में जगदीशचंद्र माथुर और मोहन राकेश दोनों ही सफल नाटककार के रूप में रंगमंच को उन्नत करते स्थापित होते हैं।

संदर्भ :
1. गोविंद चातक: नाटककार जगदीश चंद्र माथुर (1973), पृष्ठ 29
2. जगदीश चंद्र माथुर: कोंणार्क-परिचय (भूमिका), पृष्ठ 9
3. नेमिचंद जैन: आधुनिक हिन्दी नाटक और रंगमंच,पृष्ठ 122 (आधुनिक हिन्दी नाटक-सार्थकता की दिशाएँ-नेमिचंद जैन)
4. डॉ. धर्मवीर भारती: नटरंग अंक
5. जगदीश चंद्र माथुर: कोंणार्क-परिचय, पृष्ठ 9
6. डॉ. सुंदरलाल कथूरिया:समसामयिक हिन्दी नाटक बहुआयामी व्यक्तित्व, पृष्ठ 59
7. गोविंद चातक: नाटककार जगदीश चंद्र माथुर, पृष्ठ 52
8. गोविंद चातक: नाटककार जगदीश चंद्र माथुर, पृष्ठ 52
9. आधुनिक हिन्दी नाटक और रंगमंच: सम्पादक ने नेमिचंद जैन: पृष्ठ 122 (आधुनिक हिन्दी नाटक: सार्थकता की दिशाएँ- ने.चं. जैन)
10. शारदीया: पृष्ठ 85
11. शारदीया: पृष्ठ 39
12. जगदीश चंद्र माथुर: पहला राजा: भूमिका, पृष्ठ 5-6
13. गोविंद चातक: नाटककार जगदीश चंद्र माथुर, पृष्ठ 52
14. डॉ. केदार नाथ सिंह: हिन्दी के प्रतीक नाटकों का रंगमंचीय अनुशीलन (टंकित शोध-प्रबंध) पृष्ठ 128
15. रमेश गौतम: सातवें दशक के प्रतीक नाटक, पृष्ठ 91
16. डॉ. इंद्रनाथ मदान: आधुनिकता और हिन्दी साहित्य, पृष्ठ 208
17. डॉ. दशरथ औझा: हिन्दी नाटक उद्भव और विकास: पृष्ठ 370
18. आधुनिक हिन्दी नाटक और रंगमंच: सं. नेमिचंद जैन, पृष्ठ 124
19. डॉ. केदार नाथ सिंह: हिन्दी के प्रतीक नाटकों का रंगमंचीय अनुशीलन (टंकित प्रति) पृष्ठ 128
20. डॉ. केदार नाथ सिंह: हिन्दी के प्रतीक नाटकों रंगमंचीय अनुशीलन (टंकित शोध-प्रबंध) पृष्ठ 128
21. गोविंद चातक: नाटककार आधुनिक नाटक का मसीहा, पृष्ठ 60
22. वीणा: जून सन् 1971 (डॉ. शांति लाल जैन)
23. मोहन राकेश: साहित्यिक और सांस्कृतिक दृष्टि, पृष्ठ 165-166
24. नटरंग अंक 21: पृष्ठ 36 (नेमिचंद जैन: मोहन राकेश के नाटक)
25. डॉ. सुरेश अवस्थी: भूमिका-लहरों के राजहंस, पृष्ठ 5
26. मोहन राकेश: लहरों के राजहंसपृष्ठ 55
27. नरनारायण राय: आधुनिक हिन्दी नाटक: एक यात्रा दशक, पृष्ठ 17
28. आधुनिक हिन्दी नाटक और रंगमंच: सं. नेमिचंद जैन, पृष्ठ 135 (राकेश के नाटक: कुछ अंत सूत्र-जगदीश शर्मा)
29. गोविंद चातक: नाटककार जगदीश चंद्र माथुर, पृष्ठ 77
30. रमेश गौतम: सातवें दशक के प्रतीक नाटक, पृष्ठ 54

 

सुरभि नामदेव
शोधार्थी हिन्दी, बरकतउल्ला विश्विद्यालय, भोपाल
सहायक प्राध्यापक, हिंदी भोपाल स्कूल ऑफ सोशल साइंसेस, भोपाल, मध्य प्रदेश
sn.itrs@gmail.com, 9893823981
 
डॉ. धीरेंद्र शुक्ल,
विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी, उच्च शिक्षा विभाग, मध्यप्रदेश शासन, भोपाल

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : सौमिक नन्दी

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